मानसून आते ही मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगर ही नहीं, बल्कि पटना,भागलपुर, वाराणसी, भोपाल जैसे छोटे शहरों के भी ‘पानी-पानी’ होने की खबरें सुर्खियां बनने लगती हैं। अब मानसून केवल बारिश नहीं ला रहा, बल्कि महानगरों, शहरों से लेकर कस्बों तक में बाढ़ भी ला रहा है। इससे न केवल भारी वित्तीय क्षति पहुंच रही है, बल्कि कई लोगों को हर साल जान से हाथ भी धोना पड़ता है। नीति आयोग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ की वजह से देश को हर साल औसतन 5,649 करोड़ रुपए और 1,654 मानव जीवन का नुकसान होता है। ऐसे में अगर हमने बाढ़ रोकने के पर्याप्त प्रबंध नहीं किए तो आने वाले सालों में बारिश से होने वाली आपदाएं देश के लिए भारी तबाही ला सकती है। शुरुआत तो हो ही गई है। जानते हैं कि आखिर देश में बाढ़ जैसे हालात क्यों बन रहे हैं और इसका क्या असर हो रहा है।
‘भारी वर्षा दिवस’ बढ़ रहे हैं , क्योंकि बदल रहा है मानसून का पैटर्न…
सरकारी आंकड़ों और विशेषज्ञों की माने तो भारत में हर साल होने वाली मानसूनी बारिश की मात्रा में तो वार्षिक रूप से कोई खास फर्क नहीं आया है, लेकिन मानसून के स्वरूप में फर्क जरूर आया है। भारत के वार्षिक वर्षा में जून, जुलाई और सितंबर महीनों में मॉनसूनी बारिश का योगदान घट रहा है जबकि कुछ क्षेत्रों में अगस्त की वर्षा का योगदान बढ़ रहा है। मौसम विभाग द्वारा वर्ष 1989-2018 के बीच वर्षा से जुड़े जिला स्तरीय आकड़ों पर आधारित एक विश्लेषण में बताया गया है कि सौराष्ट्र, दक्षिणी राजस्थान, उत्तरी तमिलनाडु, उत्तरी आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पश्चिमी ओडिशा, छत्तीसगढ़ के कुछ इलाके, दक्षिणी-पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, मिजोरम, कोंकण-गोवा एवं उत्तराखंड में ‘भारी वर्षा दिवस’ (एक दिन में 6.5 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश) प्रभावित इलाकों में उल्लेखनीय बढ़त हुई है। मानसून में आ रहे इस बदलाव के कारण जहां मानसून के दौरान बारिश वाले दिनों में कमी आ रही है, वहीं भारी वर्षा वाले दिनों की संख्या बढ़ रही है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में एकाएक मूसलाधार बारिश से भूस्खलन और अचानक आई बाढ़ से संबंधित आपदाओं का सिलसिला जोर पकड़ता जा रहा है। भारतीय महासागर से सटे इलाकों में गंभीर चक्रवाती तूफानों की संख्या में भी कुछ सालों के दौरान काफी इजाफा हुआ है।
बदल रहा है मानसून का पैटर्न, क्योंकि बढ़ रही है ग्लोबल वॉर्मिंग
मानसून के स्वरूप या पैटर्न में आ रहे बदलावों को सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर देखा जा रहा है। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार वर्ष 1901–2018 के बीच में भारत में सतही हवा के तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप वायुमंडलीय नमी में भी बढ़ोतरी हुई है। वहीं 1951–2015 के दौरान हिंद महासागर में समुद्र की सतह के तापमान में भी लगभग 1 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हुई है। विभिन्न फैक्टर्स में इन असामान्य बढ़ोतरी का असर सीधे-सीधे मानसून के पैटर्न पर पड़ा है।
बढ़ रहा है बाढ़ का कहर, क्योंकि बढ़ रहा है अनियोजित विकास
मानसून के पैटर्न में बदलाव की वजह से होने वाली अत्यधिक बारिश से तो दिक्कतें हुई ही हैं, लेकिन इन दिक्कतों को बढ़ाने का काम किया है सालों से हो रहे अनियोजित विकास कार्यों ने। बारिश से होने वाली आपदा को रोकने वाली प्राकृतिक सुरक्षा को भी हमने नष्ट कर दिया है। नदी एवं बड़े तालाबों के जलग्रहण क्षेत्रों में हमने सड़कें, इमारतें, कांक्रीट वर्क कर दिया है। ऐसे में बारिश का पानी, वह भी कुछ ही घंटों मंे तेज बारिश का पानी आखिर जाएगा कहां। प्राकृतिक जल निकासी के रास्ते बंद हो जाने से जल भराव होना शुरू होता है। अत्यधिक बारिश की स्थिति में यही आपदा का रूप ले लेते हैं।
बाढ़ से होने वाले जान-माल के नुकसान में वे शहर सबसे ज्यादा प्रभावित होते है जहां शहरीकरण के चलते प्राकृतिक रक्षा प्रणाली को नजरंदाज किया गया जिसमे मुंबई, चेन्नई, पुणे, हैदराबाद, उत्तराखंड, कश्मीर में आने वाले बाढ़ भी शामिल हैं जहां सबसे ज्यादा नुकसान देखने को मिलते हैं।
जब बड़े बांध बने आपदा की वजह
बड़े बड़े बांध भी ऐसे हालात में बाढ़ को कम करने की जगह इससे होने वाले नुकसान को बढ़ावा देते है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा बनाई गई एक उच्च स्तरीय सरकारी कमिटी ने साल 2013 में उत्तराखंड में आई आपदा के लिए बांधों के कुप्रबंधन को भी जिम्मेदार बताया था। विशेषज्ञों द्वारा नदीओं के किनारे एवं जल फैलाव क्षेत्रों (फ्लडप्लेन), और जलाशयों को सुखा कर हो रहे आवासिकरण एवं इंसानों द्वारा बनाए जा रहे इंफ्रास्ट्रक्चर इत्यादि को भी भारी वर्षा के दौरान बाढ़ को बढ़ावा देने में जिम्मेदार माना जाता है।
जब बारिश ने मचाया कहर …
भारतीय मौसम विभाग के आकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 में देश के विभिन्न हिस्सों से भारी वर्षा और बाढ़ से संबंधित घटनाओं में 600 से अधिक लोगों की जानें गईं। इनमें असम से 129, केरल से 72, तेलंगाना से 61, बिहार से 54, महाराष्ट्र से 50, उत्तर प्रदेश से 48, हिमाचल प्रदेश से 38 मृत्यु शामिल थी।
जुलाई 2005, मुंबई- 18 घंटों में 94 सेंटीमीटर बारिश (1493 मौतें)
जून 2013, उत्तराखंड – 72 घंटों में 38.5 सेंटीमीटर बारिश (6000 मौतें)
नवंबर 2015 चेन्नई – 48 घंटों में 48.3 सेंटीमीटर बारिश (421 मौतें)
अगस्त 2018, केरल – 48 घंटों में 31 सेंटीमीटर बारिश (483 मौतें)
फ़्लड प्लेन एक्ट को लागू करना जरूरी
साल 1975 में फ्लड प्लेन ज़ोनिंग कानून के लिए एक मॉडल ड्राफ्ट बिल केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों को भेजा गया था। कुछ राज्य जैसे मणिपुर, राजस्थान ने भले ही इस पर कानून बनाया लेकिन इसे अब तक प्रभावी रूप से लागू नहीं किया। कई राज्यों ने इस पर कोई कानून बनाने से मना कर दिया तो कुछ राज्यों ने कानून बनाने को लेकर हामी तो भरी लेकिन अभी तक उस पर अमल नहीं किया।
क्या है यह कानून?
फ्लड प्लेन में कुछ जोन या क्षेत्र चिह्नित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी राज्य में जोन-1, जोन-2, जोन-3 हैं। इनमें से जोन-1 एेसा क्षेत्र है जहां बाढ़ आने की संभावना न के बराबर है और जोन-3 मंे बाढ़ आने की बहुत ज्यादा आशंका है। तो जोन-1 में तो विकास कार्य संबंधी ज्यादा प्रतिबंध नहीं होंगे, लेकिन जोन-3 में विकास कार्य संबंधी कई नियमों का पालन करना होगा। इससे भारी बारिश से होने वाले नुकसान को रोकना आसान हो जाएगा।
क्यों लागू नहीं हो सका यह कानून?
इस कानून को लागू न करने के पीछे वजह जनसंख्या दबाव और वैकल्पिक आजीविका प्रणालियों की कमी को माना जाता है। इसके अलावा जब यह कानून प्रस्तावित किया गया था, उस वक्त जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को भी लेकर सिर्फ अनुमान लगाया गया था। उसके वास्तविक प्रभाव को महसूस नहीं किया था। अब जबकि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता बन चुकी है और यही मानसून के बदलते मिजाज का सबसे बड़ा घटक है, तो ऐसे में मानवीय प्रवृत्तियों पर नियंत्रण के साथ ऐसे कानून भी बहुत जरूरी हो गए हैं।
– देबादित्यो सिन्हा, संस्थापक – विंध्य ईकोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री फाउंडेशन, वरिष्ठ शोधकर्ता- विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी